महापुरुषों व आध्यात्मिक गुरुओं के जीवन को
लेकर कई सारी पुस्तके लिखी गई है। उनमें से अधिकांश पुस्तके या तो उन महापुरुषों
के किसी शिष्य, अनुयायी या समर्थक ने लिखी है या फिर किसी प्रकाशक ने उनके समर्थको
से जानकारी इकठ्ठी करके प्रकाशित की है । अब आप तो जानते ही है शिष्य अथवा हमेशा
गुरु का पक्ष ही लेगा । यदि गुरु की कोई ऐसी बात हुई जो वह अनुचित समझता है, वह
नहीं लिखेगा । इसके विपरीत जहाँ कहीं उसे कुछ अच्छा दिख गया । वह उसे
अतिशयोक्तिपूर्ण तरीके से बता देगा । यहाँ मेरी बात का मतलब यह नहीं लिया जाना चाहिए
कि जितनी पुस्तके बाजार में उपलब्ध है सभी में यह खोट है । यह केवल एक पक्ष है
जिसकी संभावना को नकारा नहीं जा सकता ।
लेकिन योगी कथामृत के सम्बन्ध में ऐसा नहीं है
। क्योंकि वह स्वयं लेखक के द्वारा अपने जीवन के अनुभव के रूप में लिखी गई है ।
मैंने इस पुस्तक को दो बार पढ़ा है और अब भी जब कभी कुछ जानने की इच्छा होती है तो
मैं इसके पृष्ठों को टटोलने लगता हूँ । परमहंस योगानन्द जी ने अपनी जीवनी को इस
तरह लिखा है कि यदि बच्चों को सुना दी जाये तो वो भी भाव विभोर होकर सुनेंगे । जैसाकि
नाम से विदित है “ योगी कथामृत ” ऐसी पुस्तक है जिसके पढ़ने मात्र से कोई भी
व्यक्ति अपने ह्रदय में शांति महसूस करने लगेगा ।
यह पुस्तक ४९ अध्यायों में विभाजित की गई है ।
प्रत्येक अध्याय जीवन के एक नये अनुभव, नयी घटना और नये परिदृश्य के रूप में शुरू
होता है और असीम शांति के साथ खत्म होता है । जीवनी को लेकर मैंने अब तक जितनी भी
पुस्तके पढ़ी, उन सबमें योगी कथामृत के जैसा सम्मिश्रण नहीं था । जैसे किसी में
ज्ञान को मूल में रखा जाता है तो कहीं मनोरंजन को प्रधानता दी जाती है तो कहीं
केवल रहस्यों पर चर्चा की जाती है । लेकिन योगी कथामृत में जीवन दर्शन, अनुभव,
भक्ति, ईश्वर, मनोरंजन, चमत्कार, रहस्य, दिव्यलोक, सूक्ष्म शरीर जैसे बहुत सारे
विषयों का सम्मिश्रण किया गया है । और यही कारण है कि यह पुस्तक संसार की लगभग सभी
भाषाओ में प्रकाशित हो चुकी है ।
लेखक परिचय – परमहंस योगानन्दजी का जन्म ५
जनवरी १८९३ को गोरखपुर उत्तर प्रदेश में हुआ । उनकी माता का नाम श्रीमती ज्ञान
प्रभा घोष और उनके पिताजी का नाम श्री भगवती चरण घोष है । उनके बचपन का नाम
मुकुन्दलाल घोष तथा उनके गुरु का नाम श्री युक्तेश्वर गिरी है । कोलकाता
विश्वविद्यालय से १९१५ में स्नातक की उपाधि प्राप्त के पश्चात स्वामी श्री
युक्तेश्वर गिरी से उन्होंने सन्यास की दीक्षा ले ली । सन १९२० में उन्होंने अमेरिका
के बोस्टन शहर में होने वाले अन्तराष्ट्रीय धर्मं सम्मेलन में भारत के प्रतिनिधि
के रूप में भाग लेने का निमंत्रण स्वीकार किया । इसके पश्चात उन्होंने विश्वभर में
अपनी शिक्षाओं के प्रसार के लिए योगदा सत्संग सोसाइटी और सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप
की स्थापना की । इस तरह ५ मार्च १९५२ को परमहंस योगानन्द जी लोस एंजेलिस में
महासमाधि में प्रविष्ट हो गये ।
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ReplyDeletehttps://www.pocketfm.in/show/630c9ee033c9e94a4ede77db990030a852aa34aa
मुझें "योगिकथामृत" किताब चाहिए कृपया ऑन लाइन लेने के लिए कहाँ से बुक करनी होगी बताये
ReplyDeleteDECEMBER 25, 2020 AT 2:06 AM
ReplyDeleteमुझें "योगिकथामृत" किताब चाहिए कृपया ऑन लाइन लेने के लिए कहाँ से बुक करनी होगी बताये ।
7006636295
rajulalcr123@gmail.com
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