यह पुस्तक परमहंस योगानन्द जी के दैनिक जीवन
में ईश्वर अनुभूति पर आधारित प्रवचन और आलेखों का संकलन है । यह संकलन परमहंस
योगानन्द जी की शिष्या श्री दया माताजी द्वारा किया गया है । मानव की निरंतर खोज
पुस्तक की प्रस्तावना में श्री दया माता जी कहती है कि “ पहली बार जब मैंने श्री
परमहंस योगानन्द जी को १९३१ में साल्ट लेक सिटी के एक विशाल मन्त्र मुग्ध श्रोता
समूह के समक्ष बोलते देखा तो मैं स्तंभित हो गई । मुझे वक्ता और उनके शब्दों के
अलावा अपने चारों ओर किसी भी वस्तु का आभास नहीं हो रहा था । मेरा सम्पूर्ण
अस्तित्व उस ज्ञान और दिव्य प्रेम में डूब गया था जो मेरी आत्मा में प्रवाहित
होकर, मेरे ह्रदय और मेरे मन को ओतप्रोत कर रहा था । मैं केवल यही सोच रही थी कि
ये ईश्वर को वैसे ही प्रेम करते है जैसे मैंने सदा से उन्हें प्रेम करने की लालसा
की है । वे ईश्वर को जानते है और मैं उन्हीं का अनुसरण करुँगी ।” श्री दया माता ने
वैसा ही किया ।
इस पुस्तक में मानव जीवन की मुलभुत समस्याओं
का बहुत ही सरल और वैज्ञानिक समाधान है । मैं जब भी इस पुस्तक को पढ़ता हूँ हर बार
ऐसा लगता है कि कुछ नया सिखने को मिला है । समय कब निकल जाता ! पता ही नहीं चलता ।
इस पुस्तक में ईश्वर, प्रकृति और आत्मा के अनुभव जनित ज्ञान का समावेश किया गया है
। श्री दया माता कहती है कि श्री योगानन्द जी कभी भी अपने किसी भी व्याख्यान की
कोई तैयारी नहीं करते थे । वह ईश्वर में स्थित होकर बोलते थे । तो आप खुद अनुमान
लगा सकते है कि उनका ज्ञान किस स्तर का होगा ।
जो कोई भी व्यक्ति योग - अध्यात्म में थोड़ी भी
रूचि रखता है, वह परमहंस जी की यह पुस्तक अवश्य पढ़े । अधिकांश योग – अध्यात्म की
पुस्तके केवल लोगों के मनोरंजन और योग – साधनाओं के बाहरी स्वरूप को ध्यान में
रखकर लिखी जाती है । लेकिन जब तक अध्यात्म की जड़ समझ में नहीं आई । कोई भी साधना
विधि आपको कोई लाभ नहीं पहुंचा सकती है ।
लेखक परिचय – परमहंस योगानन्दजी का जन्म ५
जनवरी १८९३ को गोरखपुर उत्तर प्रदेश में हुआ । उनकी माता का नाम श्रीमती ज्ञान
प्रभा घोष और उनके पिताजी का नाम श्री भगवती चरण घोष है । उनके बचपन का नाम
मुकुन्दलाल घोष तथा उनके गुरु का नाम श्री युक्तेश्वर गिरी है । कोलकाता
विश्वविद्यालय से १९१५ में स्नातक की उपाधि प्राप्त के पश्चात स्वामी श्री युक्तेश्वर
गिरी से उन्होंने सन्यास की दीक्षा ले ली । सन १९२० में उन्होंने अमेरिका के
बोस्टन शहर में होने वाले अन्तराष्ट्रीय धर्मं सम्मेलन में भारत के प्रतिनिधि के
रूप में भाग लेने का निमंत्रण स्वीकार किया । इसके पश्चात उन्होंने विश्वभर में
अपनी शिक्षाओं के प्रसार के लिए योगदा सत्संग सोसाइटी और सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप
की स्थापना की । इस तरह ५ मार्च १९५२ को परमहंस योगानन्द जी लोस एंजेलिस में
महासमाधि में प्रविष्ट हो गये ।
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